Manthan

कहीं ऐसे

कहीं ऐसे जाना
की दिल के कौने में कहीं जो सच्चाई छुपी है
वो सच्ची है...
उसी को लेके तराशने का मौका ढूढ रहा हूँ
मिली तो यकीन है ख़त्म न होगी
बस मिले तो सही

तलाश ही ऐसी है
भले ही नज़रे बंद कर के
अंधेरो में नज़ारे घूमता हूँ
रौशनी अन्दर की आवाज़ देती है
देखने को अँधेरे भी खूब है
फिर नहीं दिखी वो तो
सुन लूँगा उसे ..

यकीन जज्बात से पैदा होता है
खुदा का खुद पता नहीं है
बस सुना है की होता है
वो यकीन ना में करते है
और मैं होने में
फरक कुछ नहीं है
उन्हें बैठने में तसल्ली है
और मुझे ढूढने में

खुद तलाश का पता हो तो
असर जल्दी ख़त्म हो जाता है
कहते है की

ऐ मौला

दूर हरियाली में मेहनत करे, उस से धुल दो शब्द मांगे
हरों को वो आबाद करे, लौटा उसे ढाणी दे मौला !

रेत की सपाट चादर पे, हवाए रेंग रेंग चली गयी
अब मेरी नज़रे दौड़ती है, उस पे वो दो पाग बना दे मौला

जूनून विदा कर देता है, धरती आस लगा लेती है
अब तो खूब बरस भी गया, प्यासों को वापिस बुला ले मौला

उजड़े उजाड़ में आते है , बस देख देख के जाते है
पता वहीँ का देती हूँ, उनको भी आबाद बना देगा मौला

मेघ खूब उमड़ आते है तो क्या, प्यास वहां क्या लगती नहीं
बंज़र पे लगा दे तू पौधा, प्यास का मतलब बता दे मौला

सांझ तेरी थली पे नित आऊ, तेरा दिया रोज़ जलता है

चाह

मैं बीत जाना चाहता हूँ
हंसी के गलियारों में
बहा के ले जाती है
रह रह के ठंडी हवा
वहां मुझ को..

कुछ मुस्काने दबी पड़ी है
वंहा जैसे अभी , वो वहीँ है
पलको भीतर जिन्दा है
दौड़ते हुए बातें करता हूँ
दूर हूँ, कंही साथ लेके चलता हूँ

जान पड़ता है, जैसे वहीँ है सब
बस थोड़ी सी देर हो गयी
मैं गया नहीं , पर ...
वक़्त के थपेड़े लगते रहते है,
फिर , बदलना तो मेरी भी आदत है

शुरू से जब पैदा होता हूँ
हर चीज़ पीछे छूट जाती है
ये तरीका किसी ने दिया है
की.. बदलने की चाहत में
पूरा बीत जाता हूँ .

Nostalgia

खुद से थोडा खुद को मांगता हूँ..
याद जो चढ़ती है तो नज़र मांगता हूँ ...
जो गुज़रा, वो अब सफ़ेद सा है ..
पोतना है मुझे,
इसलिए यादो से अब रंग मांगता हूँ ..

खाक मिट्टी से जो उठा था ...
रौंद हवा को रौब मांगता हूँ ....
बस गूंज रह जाएगी मेरी आवाज़ दूर तक ,
इसलिए ...
चुपचाप ज़मीन से जड़ो को फिर मांगता हूँ

सुनी रेत को उडाती हवाए नाचती है ...
सपाट आसमान से बारिशें मांगता हूँ ...
पर ताकने में वक़्त बहुत जाया होता है...
खुद बरसना है मुझे, इसलिए अभी
निकलने की एक डगर मांगता हूँ

जब तक यहाँ हरे थे, तब तक ठीक था ...
गिरे हुए पत्तो से अब वो पेड़ मांगता हूँ ...

कराह

प्रेम कर भले, .... रब को पाले
बैर रख भले... जल जा ... मन को दे जाने
कर ले .. कर ले , उसको इतना कर ले
जब बेठ अँधेरे में, आँख जो खोले
सुलगता हुआ कुछ तो मिलेगा
तुझको .....
जिसने तपाया था, राख में भी आ ..पाले

ख़ुशी का क्या है, एक जो भ्रम है
और वो दूजा... जो भ्रम में डाले
हो लेगा एक पल में उसका...
आजा अन्दर के अँधेरे में
दूजे में ... वो खुद तुझको अँधेरे में डाले

प्रेम, बैर....अपना या कोई गैर
सब सुलगते है ... एक..
चमकती रौशनी में
किसी को ना कुछ जान पड़ता है
बस टपकेंगे कुछ बूंद आंसू के
वो एक तलब है ...
शायद किसी के ना होने की
या शायद कोई हो ... ऐसे की

क्या करू आज़ाद हूँ

निकला हूँ एक गली में
कितनी साफ सुथरी सड़क है
पर नज़रे कचरा ढूढती है
क्या करू आज़ाद हूँ

काश अकेला होता
एक वीरान टापू पे
ढूढता टूटी टहनियों को
सोचता आग कैसे लगती है
क्या करू आज़ाद हूँ

मेरा एक घर है
नहीं नहीं...
एक बड़े घर में मेरा भी एक घर है
मेरा तो दरवाज़ा बंद है
आँगन से आती हुई रौशनी ताकता हूँ
क्या करू आज़ाद हूँ

मैं तो निडर हूँ
कुछ है जो डरना तय करते है
बस उनसे बनी अनबन ना हो जाये
क्या करू आज़ाद हूँ

मेरे बस का ना पूछो
सुबह सुबह सफ़ेद कागज़ को पढके
नाक सिघोड़ने की हिम्मत है
क्या करू आज़ाद हूँ

अभी अभी एक दुकान देखी
मेरे भाई की ही है
सिखाया मैंने ही था ...

मनु मानस

आँखों के बंद दायरे में
कोई अहसास सा ना है
बस एक मुस्कान की चमक
दिल में घर कर जाती है...

जब मेरी परछाई मुझसे घबराती है
एक गुम्बद सर पे आ बनता है
इतना बड़ा इतना विशाल
फिर सूरज की तपन मिट जाती है ...
परछाई नहीं, उसकी शीतल मिल जाती है

आती हुई आंधियों के डर से
जब घबरा के आंखे बंद कर लेता हूँ
एक नरम मुस्कान बारिश बन आती है
फिर आंखे खुली होती है बहती हुई आंधी में
बरसी हुई रेत ... एक महक बन जाती है

आते जाते बवंडरो में डर लगता है
उनसे मिलके खुद की हस्ती गुम ना हो जाए
पकड़ के उसका सहारा, वही रहता हूँ बनके
खुद एक बवंडर, फिर कितने आये जाए...

ओझल भ्रम

रहेगी दुनिया यही... भ्रम का कहना
खुद में होके, भ्रम में होके
असल लगे... जीले उतना उतना...
और औरों से होके, उनका जो मिले
मिलाके उसे, खुद को बुनना
धीरे धीरे अपनी एक डोर बन जाएगी
भ्रम में ही सही जिन्दगी....... कुछ तो कह जाएगी ।

डर भी हरदम साथ रहता है
कभी किसी से अपने आप लगता है
स्वयं की परिभाषा कम पड़ जाती है
डर उसी कमी की छाप चढ़ता है
सुखा रंग पानी में मिलके जैसे चढ़ आये
ऐसा ही कुछ सुखा मन के कोने में रह जाये
हल्की सी हवा काफी है... फिर मत सोचो उसे...
बस कोरे मन पर लिखना अब रह जायेगा
लिखना वहां कुछ ऐसे.... तो डर अपने आप उड़ जायेगा ।

सृजन

खूब जाता हूँ गहराई तक
क्या फायदा साथ ना रोशनी
इस बार वापिस आया हूँ
लेकर जाऊंगा, बस उतनी
जिस से रोशन हो जाए
वो गहरा गर्त जिसमें जाना होगा ।

मिलती है खूब परछाइयाँ मुझे
संग मेरी चलती है ख़ुद मेरी
हर वक्त ताकती है बिन आँखों के अपलक
जहाँ जितना चलूँगा साथ चलेगी..
ना चाहूँ.. तो अंधेरे में भी चलना होगा !

खूब बिखेरा है ख़ुद को यहाँ
अब टुकड़े ख़ुद बोलतें हैं जोड़ दो हमें
समेटने की मेरी ये कोशिश
कटिबद्ध परन्तु कुछ मिल नही रहें
शायद कुछ ... या एक जो किसी और के पास होगा !

पहुँच यहाँ अब मैं सोचता हूँ
कितना आसान था सब करना जो किया
मुश्किल अब भी वही है

Likh de Mujhe

देखा कोई खाली पन्ना
खूब उतारा मैंने लिख
सोचूं मैं ख़ुद हूँ कोरा
मेरा बिम्ब नक़ल हो जैसे
अब मिले कोई ऐसा
जो लिख दे मुझे ...

खामोश मैं रहूँगा
कभी कुछ ना कहूँगा
मेरी जबान वो आंखे
देखे और कह जाए
वो लफ्ज़ जो अनकहे है
और बस लिख दे मुझे ।

करीने से सजी है यंहा
कांच की ये टुकडियां
खुब चमक ही चमक
थोड़ा ऊपर से जो गिरे
वो टुकड़े और थोडी छनक
हु मैं भी अब और हमेशा बिखरा
हो जो समेटे और लिख दे मुझे।

प्यास भी अजीब होती है
लगे तो नाश करती है
बुझी तो मीठी कयास बनती है
वो ओस की बूंद जो रहे
हर तिरछी तीखी कोर पे
जो उतरे तो लिख दे मुझे।

गुमराह हो अंधेरे मैं
भटक के जो घूमता हूँ

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