Manthan
मेरी पाठशाला (अपेक्षा)
इच्छा मेरी, दुखों की जननी
सीख के मैंने, कर के जानी
धुप में खिले, रंगों की रानी
इच्छा करूँ, मेहनत से पाऊ
बिन समय, जब जो सोचूं
कमजोर मैं, किस्मत कोसु
तोड़ अपेक्षाएं, खड़ा होके
तिनका तिनका, गढ़ता जाऊँ
जब सोचा, लालसा को पकड़ा
मेरा बंधन, मुझी से अकडा
इतना भोला, कभी ना जाना
अब जब सोचा, तो खुल जाऊँ
अपेक्षा मेरी, मैं जानू
करू मैं, भरू ही मैं
किया जिससे, वो क्या ले
तोडके उस से, मुझ को बनाऊ
मुक्त विधा में, कला आएगी
असंभव काम, कर वो जायेगी
विधा मेरी, मेरे अन्दर
खूब सोचा, अब कोर ही जाऊँ
शंका सबकी, इतनी छोटी
चींटी जैसी, सूंड में डोले
छींक डालू, तीव्र वेग से
मेरी पाठशाला
मैं शांत, बस झांक
मैं निर्मल, अनंत भान
अन्दर गहरा , बाहर कोरा
मैं जीयू , यही कोरा
अनंत अपार फिर भी थोड़ा !
मैं जागूँ , या सो जाऊँ
जब सोचूं , तो खो जाऊं
खुल ऐसे, साज के जैसे
जब निकलू, चमक बन जाऊँ
तेज भी, मंद भी ना
बस प्यारा, मन को सोखे
जब मिलूं, तो मिलकर ऐसे
उसी का जैसे, बस घुल जाऊँ
प्रेम देखा, चल चलूँ
आवेग झोंका, सह चलूँ
मैं पावन, मैं निर्मल
जो कठोर, कोमल बन जाऊँ
शब्द ऐसे, फूल हो जैसे
कोमल पंख, पखेरू ऐसे
वो उडे, तो अभिलाषा आए
कोशिश करूँ, मैं उड़ जाऊँ
शंख नाद, कोरु जो आज
बीता दिया, गया वो आज
आएगा क्या, सोच लूँ आज
मनन ऐसा, कर कर जाऊँ
एक पल, और हो एक विचार
On my own
सोचता हूँ आज फिर लिखूँ , बहुत दिनों बाद फिर कुछ सीखूं,
जब मैं प्रयत्न करता हूँ, तो सोचकर बहुत कुछ चलता हूँ,
मेरे हृदय में फिर भूचाल है, खैर चलता हूँ हरदम साथ लेकर
हो न हो कोई यहाँ, मैं चलूँगा ऐसे ही ,सम्भव सब साथ लेकर
विचारो की माया में उलझने से बेहतर नही विचार शुन्य होना
खैर उलझकर सुलझाने में ही छिपा शुन्य से अनंत होना
कड़ी धुप में बग्घी पगडण्डी पर चलती हुई, रेत के गुब्बार में
खांसते हुए उस को देखकर, मैं सोचता हूँ, रेत के गुब्बार से
कुछ फरक है, या नही , किसी को अहसास नही, क्यों सोचो तो
एक जो चले अन्दर, दोनों विचार शुन्य, एक धुल के अन्दर
Feel Euphoria
कर जतन हो सकेगा और तेरा ही होगा,
हाथ की लकीरे तो रह गई मुडी हुई,
मन तेरा गर सधा रहा तो,
जनम ये सफल होगा;
खोल कर मन का पिटारा स्वीकार कर द्वंद सारा,
उफन पड़ेगा शायद बह भी जाए,
इन आँखों के रस्ते, ....बहने दे पर,
फिर जीवन सरल होगा;
चलूं ही क्यों इतना बोझ लेकर,
जो ढोते कई और है, ढोने दो ,
मेरा क्या मैं तो ख़ुद एक बादल हूँ ,
गरजकर भलें ही बरसू...
पर रंग अब धवल होगा;
सोचने पर जो अभी अच्छा लगे,
बाद में कभी मन छलेगा,
मन तो बने बिगडे,
ज्ञान चक्षु हो तो, निर्णय अभी सरल होगा;
संकट में तो सब सोचे ,
मेरा चिंतन अनवरत रहे,
जब ऐसा मंथन रहा तो ,
सर्वत्र सदैव परम होगा ।
..पारस